परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज जी कह रहे हैं कि नाम की अपार महिमा है । कल भी मैंने कहा था कि गोस्वामी जी महाराज राम जी को अपना इष्ट मानते हैं । उनके लिए भी गोस्वामी जी कह देते हैं कि राम जी सरकार भी अपने नाम का गुणगान नहीं कर सकते । अर्थ क्या हुआ - हमारी सरकार भी नाम की महिमा कहने में असमर्थ है । कह भगवान् तो सब कुछ कर सकते हैं । फिर नाम की महिमा क्यों नहीं बता सकते ? तो यह उनकी कमजोरी नहीं है । यह उनकी महिमा ही है । अपने नाम की पूरी महिमा नहीं बता सकते, ये राम जी की महिमा ही है । राम जी ने एक अहिल्या का उद्धार किया जो कि ऋषि की पत्नी थी । उनके नाम ने करोड़ों खलों को, दुष्ट बुद्धि को सुधार दिया । तो नाम की महिमा है । नाम के होते हुए नरकों में जा रहे हैं । नाम सबके लिए सुलभ है । हिंदू हो, मुसलमान हो, ईसाई हो, पारसी हो कोई हो । नाम की महिमा हर समय है । नाम की महिमा कलियुग में विशेष है । चेतन्य महाप्रभु कहते हैं - भगवान् ने नाम में अपनी शक्ति रख दी । ध्यान देकर सुनें एक बात बताएं -
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May 5, 2025
Apr 30, 2025
उपनिषदों की दृष्टि से परमात्मा का स्वरूप और उसका साक्षात्कार
मनुष्य के जीवन में जब भी वह अपने अस्तित्व, सृष्टि और जीवन के उद्देश्य पर विचार करता है, तब उसका मन स्वाभाविक रूप से एक परम सत्ता की ओर आकर्षित होता है। यही सत्ता है — परमात्मा। लेकिन इस परमात्मा के स्वरूप, स्थान और उसके साथ मानव जीवन के संबंध को लेकर समाज में अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ और कल्पनाएँ व्याप्त हैं। कोई उसे साकार रूप में किसी विशेष स्थान में विराजमान मानता है, कोई उसे सातवें आसमान पर स्थित बताता है, तो कोई उसे केवल एक कल्पना या भावना कहकर नकार देता है। यह लेख इन भ्रांतियों का विश्लेषण करते हुए, उपनिषदों और महर्षि दयानन्द सरस्वती की दृष्टि से परमात्मा के वास्तविक स्वरूप और जीवन के उद्देश्य को स्पष्ट करता है।
Apr 17, 2025
मन का मनका फेर: कबीर के दोहे में छिपा आत्म-साधना का संदेश
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥
यह दोहा संत कबीर की अद्भुत आध्यात्मिक गहराई और व्यावहारिक सोच का परिचायक है। कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से धर्म के बाह्य आडंबरों पर कटाक्ष करते हुए सच्ची साधना की ओर संकेत कर रहे हैं।
पहले पंक्ति में कबीर कहते हैं कि कोई व्यक्ति वर्षों से, युगों तक माला फेरता रहा है—अर्थात, वह रोज़ अपने हाथ में तुलसी, रुद्राक्ष या अन्य माला लेकर भगवान का नाम जपता है, लेकिन उसके मन में कोई परिवर्तन नहीं आया। उसका मन आज भी वैसा ही चंचल, कामनाओं से भरा हुआ, मोह-माया में उलझा हुआ है। उसका क्रोध, लालच, ईर्ष्या, घृणा जैसी प्रवृत्तियाँ जस की तस बनी हुई हैं।
यहाँ कबीर हमें यह समझाते हैं कि केवल हाथ से माला फेरने से, केवल शारीरिक क्रियाओं से आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती। यदि मन में शुद्धता, एकाग्रता, और ईश्वर के प्रति प्रेम नहीं है तो साधना मात्र एक दिखावा बन जाती है।
दूसरी पंक्ति में कबीर एक समाधान सुझाते हैं। वे कहते हैं कि यदि तुम सच में भगवान को पाना चाहते हो, तो पहले अपने हाथ की माला (जो बाहरी साधन है) को त्याग दो और मन की माला फेरो। अर्थात्, तुम्हारा मन ही असली साधना का केंद्र है। मन की चंचलता को साधो, उसे नियंत्रित करो, उसमें ईश्वर का स्मरण करो।
यहाँ "मन का मनका फेरना" का अर्थ है – हर पल, हर साँस में ईश्वर का स्मरण करना, बिना किसी बाहरी दिखावे के, पूरी निष्ठा और भाव से। कबीर मानते हैं कि सच्ची भक्ति वह है जो भीतर से उपजे, न कि केवल परंपराओं या सामाजिक दबाव से की जाए।
यह दोहा हमें सतर्क करता है कि केवल धार्मिक क्रियाएँ करने से हम आध्यात्मिक नहीं हो जाते। यदि हमारे कर्म, विचार, और भावनाएँ शुद्ध नहीं हैं, तो पूजा-पाठ व्यर्थ है। कबीर का यह दृष्टिकोण बहुत व्यावहारिक है। वह चाहते हैं कि साधक बाहरी पूजा से ज़्यादा आत्ममंथन करे, अपने भीतर झाँके, और अपने मन की दशा को सुधारे।
सच्ची भक्ति तब होती है जब हमारा मन स्वच्छ हो, हम अहंकार, द्वेष, और लोभ से ऊपर उठें, और हर कार्य में ईश्वर का स्मरण रखें।
कबीर का यह दोहा हमें सच्चे साधक बनने की प्रेरणा देता है। यह हमें दिखावे और बाहरी आडंबरों से ऊपर उठकर, सच्चे अर्थों में आत्मा से जुड़ने का मार्ग दिखाता है। यह हमें यह सिखाता है कि साधना का मूल उद्देश्य मन की शुद्धता और आंतरिक परिवर्तन होना चाहिए। जब मन शांत और स्थिर होगा, तभी ईश्वर की अनुभूति संभव है।
Mar 26, 2025
जाने कि गणेश जी पर तुलसी दल क्यों नहीं चढ़ता
जब श्री गणेश के प्रति उत्पन्न हुआ आकर्षण गणेश पूजा में तुलसी के पत्तों का उपयोग वर्जित है। इसके पीछे एक कथा है जो इस प्रथा की उत्पत्ति को स्पष्ट करती है। एक बार तुलसी देवी, भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए, गंगा के किनारे भ्रमण कर रही थीं। उसी समय उन्होंने युवा गणेश जी को तपस्या में लीन पाया। उस क्षण श्री गणेश ने अपने समस्त अंगों पर चंदन लगाया हुआ था, गले में पारिजात के फूलों के साथ स्वर्ण-मणि रत्नों के कई हार पहने हुए थे, और कमर पर कोमल रेशमी पीताम्बर धारण किए हुए थे। वह रत्न जड़ित सिंहासन पर विराजमान थे। तुलसी ने उनमें पीताम्बर धारी श्री हरि का स्वरूप देखा। उनके अद्भुत और अलौकिक रूप को देखकर तुलसी को श्री कृष्ण का ध्यान आया और इस रूप को देखकर वह मोहित हो गईं। इसके बाद उन्होंने श्री गणेश को अपना पति चुनने का निर्णय लिया।
हरतालिका तीज व्रत में क्रोध और सोने जैसे कई कार्यों को वर्जित किया गया है, इसके कारणों को समझें। Hartalika Teej fast anger and sleeping;
सोने से लेकर खाने तक हर किस्म का नियम है महत्वपूर्ण
सोने और खाने से संबंधित हर नियम का महत्व है। हरतालिका तीज के व्रत में विधि और कठोर नियमों का पालन करना आवश्यक है, जैसा कि पौराणिक कथाओं में बताया गया है। इस व्रत के दौरान कुछ बातों का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। हरतालिका व्रत करने वाली महिलाओं के लिए सोना मना है। यह व्रत कुमारी कन्याओं और सुहागिन महिलाओं दोनों द्वारा किया जा सकता है, लेकिन एक बार व्रत शुरू करने के बाद इसे जीवनभर बनाए रखना अनिवार्य है। केवल एक स्थिति में इस व्रत को छोड़ा जा सकता है, जब व्रत रखने वाली गंभीर रूप से बीमार हो जाएं, लेकिन इस स्थिति में किसी अन्य महिला या उसके पति को यह व्रत करना होगा।
Mar 25, 2025
व्रत एवं पूजन विधि - करवा चौथ व्रत विधि
करवा चौथ
उत्तर-पूर्वी भारत में प्रशिद्ध करवा चौथ के व्रत वैवाहित स्त्रियों में प्रशिद्ध है| यह व्रत निर्जला ही किया जाता है। इस दिन समस्त स्त्रियाँ अपने-अपने पतियों की लम्बी उम्र के लिए भगवान शिव और गौरी की आराधना करतीं है। यह व्रत कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि को मनाया जाता है। भारत के कई स्थानों पर इस पर्व को करवा के नाम से भी जाना जाता है|
करवा चौथ व्रत विधि
श्री करक चतुर्थी का यह व्रत करवा चौथ के नाम से प्रसिद्ध है। पंजाब , उतरप्रदेश , मध्यप्रदेश और राजस्थान का प्रमुख पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को रखा जाता है। सौभाग्यवती स्त्रियाँ अपने पति के रक्षार्थ इस व्रत को रखती है। गोधुली की वेला यानी चंद्रयोदय के एक घंटे पूर्व श्री गणपति एवं अम्बिका गोर, श्री नन्दीश्र्वर, श्री कार्तिकेयजी , श्री शिवजी फ्रदेवी माँ पार्वतीजी के प्रतिप , प्रधान देवी श्री अम्बिका पार्वतीजी और
केदारनाथ यात्रा: आस्था, रहस्य और प्रकृति का दिव्य संगम
उत्तराखंड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ मंदिर स्थित है, जो भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। यह मंदिर तीन ओर से केदारनाथ, खर्चकुंड और भरतकुंड पहाड़ियों से घिरा हुआ है। इसके अतिरिक्त, यहां मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी नामक पांच नदियों का संगम भी है, जिनमें से वर्तमान में केवल अलकनंदा और मंदाकिनी ही बह रही हैं। सर्दियों के मौसम में मंदिर पूरी तरह से बर्फ से ढक जाता है, इस दौरान इसके कपाट बंद कर दिए जाते हैं और बैशाखी के बाद इन्हें खोला जाता है।
केदारनाथ का इतिहास
हिंदुओं के चार प्रमुख धामों में से दो, केदारनाथ और बद्रीनाथ, उत्तराखंड राज्य में स्थित हैं। प्राचीन धार्मिक कथाओं के अनुसार, हिमालय के केदार पर्वत पर भगवान विष्णु के अवतार नर और नारायण ने कठोर तपस्या की थी। उनकी इस तपस्या से भगवान शिव अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने उन्हें दर्शन दिए। इसके साथ ही, नर और नारायण के अनुरोध पर भगवान शिव ने वहां ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करने का आशीर्वाद भी प्रदान किया। इस प्रकार, केदारनाथ और बद्रीनाथ की धार्मिक महत्ता और उनके पीछे की पौराणिक कथाएँ हिंदू धर्म में विशेष स्थान रखती हैं।
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