नमस्कार साथियों,
आपका स्वागत है “अध्यात्म उपनिषद” की पाँचवी कड़ी में।
आज “अध्यात्म उपनिषद” की गहराई में उतरेंगे।
“आध्यात्म उपनिषद”।
बहुत अद्भुत ग्रंथ है।
प्राचीन है।
लेकिन जितना पुराना है, उतना ही ताजा भी है।
यह उपनिषद उस साधक के लिए है जो गंभीर है।
जो जीवन से खेलना नहीं चाहता, बल्कि जीवन को जानना चाहता है।
जो प्रश्न पूछना चाहता है – “मैं कौन हूं?”
और सिर्फ पूछना ही नहीं, उत्तर तक पहुंचना भी चाहता है।
आज हम उस उपनिषद के एक अंश पर बात करेंगे –
जिसे ओशो ने भी बड़ी खूबसूरती से समझाया है।
वह कहता है –
“जो कहे कि मुझे आत्मा का ज्ञान है, वह अज्ञानी है।”
“आत्मा को जानने वाला बोलेगा भी नहीं।”
कितनी क्रांतिकारी बात है।
क्यों?
क्योंकि जो जानता है – उसे कुछ कहने की जरूरत नहीं।
कहने का मतलब है – अभी कुछ बाकी है।
ओशो ने कहा है –
“शब्द हमेशा अधूरा होता है।
मौन ही पूरा होता है।”
लेकिन हम सब शब्दों में उलझे हैं।
हम धर्म भी शब्दों से करते हैं।
हम प्रार्थना भी शब्दों में करते हैं।
हम ईश्वर को भी शब्दों में खोजते हैं।
और फिर शिकायत करते हैं – ईश्वर मिलता नहीं।
कैसे मिलेगा?
शब्द दीवार है।
मौन दरवाजा है।
यह उपनिषद हमें कहता है –
यदि कोई कहे – “मुझे आत्मा का ज्ञान है” – वह नहीं जानता।
वह सिर्फ दोहरा रहा है।
किसी से सुना होगा।
किताब से पढ़ा होगा।
उसने अनुभव नहीं किया।
क्योंकि अनुभव बोलता नहीं।
अनुभव मौन हो जाता है।
जैसे प्रेम में – जब प्रेमी प्रेमिका को देखता है – तो बोलता है क्या?
शब्द गले में अटक जाते हैं।
आंखें बोलती हैं।
मौन गाता है।
ओशो कहते हैं –
“सत्य को पाया तो शब्द छूट जाएंगे।
सत्य के पास शब्द खोखले हो जाते हैं।
जैसे मंदिर में घुसो – बाहर के जूते छोड़ने होते हैं।
वैसे ही सत्य के द्वार पर शब्द छोड़ने होते हैं।”
लेकिन हम उल्टा करते हैं –
जैसे कोई कहे – “मैं बहुत ज्ञानी हूं। मुझे आत्मा का ज्ञान है।”
बस वही अज्ञानी है।
क्योंकि उसे यह भी पता नहीं कि जो जानता है, वह कहेगा भी नहीं।
इसलिए उपनिषद कहता है –
ज्ञान और अज्ञान – दोनों से पार हो जाना।
यह आसान नहीं है।
क्यों?
क्योंकि मन बड़ा चतुर है।
मन कहेगा – “मैं अज्ञानी हूं” – फिर भी वह जानने वाला हो जाएगा।
यह भी अहंकार है।
अहंकार दो तरह से खड़ा होता है –
“मैं जानता हूं।”
“मैं नहीं जानता।”
दोनों ही में “मैं” बचा हुआ है।
उपनिषद कहता है –
“‘मैं’ को छोड़ो।
फिर जो बचेगा – वही आत्मा है।”
ओशो ने इस पर बहुत सुंदर बात कही –
“मन का काम है दावा करना।
मन कहेगा – मुझे परमात्मा मिला।
मन कहेगा – मुझे कुछ नहीं मिला।
दोनों ही दावे हैं।
सत्य में कोई दावा नहीं।
सत्य में केवल मौन है।”
(थोड़ा गंभीर होकर – श्रोताओं को देखें:)
तुम भी सोचो –
तुम्हें जो कुछ भी लगता है – वह ज्ञान है या सुनी-सुनाई बात?
किसी गुरु से सुना?
किसी किताब में पढ़ा?
किसी प्रवचन में सुना?
क्या तुम्हारा अपना अनुभव है?
अगर नहीं – तो ईमानदारी से कहो – “मुझे नहीं पता।”
और यहीं से यात्रा शुरू होती है।
क्योंकि जब तुम मान लेते हो कि “मैं जानता हूं” –
तब खोज बंद हो जाती है।
तब तुम्हारा मन कहता है – बस, अब कुछ नहीं करना।
तुम ठहर जाते हो।
लेकिन जब तुम स्वीकार करते हो – “मुझे नहीं पता” –
तब भीतर एक आग लगती है।
तब जिज्ञासा पैदा होती है।
तब खोज शुरू होती है।
ओशो कहते हैं –
“अज्ञानी होना अपराध नहीं है।
अज्ञानी होने का दावा करना अपराध है।
और ज्ञानी होने का दावा भी अपराध है।
केवल जानना – और मौन रहना – यही धर्म है।”
इसलिए उपनिषद हमें एक कठिन मांग देता है।
वह कहता है –
“जो कहे – मुझे आत्मा का ज्ञान है – वह अज्ञानी है।”
यह हमारी सारी धार्मिक दुकानें बंद कर देता है।
क्योंकि दुनिया में हजारों लोग यही कहते हैं –
“आओ, मैं तुम्हें परमात्मा का ज्ञान दूंगा।”
ये सब झूठे व्यापारी हैं।
क्योंकि सत्य बेचा नहीं जा सकता।
सत्य तुम्हें खुद खोजना होगा।
ओशो की भाषा में कहें –
“तुम्हें अपने भीतर उतरना होगा।
कोई तुम्हें दे नहीं सकता।
मैं भी नहीं दे सकता।
मैं सिर्फ संकेत कर सकता हूं।
तुम्हें खुद चलना होगा।”
इसलिए यह उपनिषद इतना विद्रोही है।
यह किसी पर भरोसा मत करो – यह कहता है।
यह कहता है –
“खुद को देखो।
खुद के भीतर जाओ।
और जब जाओगे – तो वहां मौन मिलेगा।
वहां कोई घोषणा नहीं होगी।
वहां कोई प्रमाण पत्र नहीं मिलेगा – ‘तुम ज्ञानी हो गए।’
वहां केवल शून्य मिलेगा – परम शून्य।
वहां सब खो जाएगा – केवल तुम रहोगे – वह भी बिना ‘मैं’ के।”
लोग पूछते हैं –
“ओशो, आत्मा कैसी है?”
ओशो हंसते हैं।
कहते हैं – “आत्मा कैसी भी नहीं है।
आत्मा कोई वस्तु नहीं है।
आत्मा एक अनुभव है।
आत्मा एक होने की दशा है।”
उपनिषद भी यही कहता है –
“जो जानने योग्य है – वह कहने योग्य नहीं है।”
क्योंकि शब्द सीमित हैं।
अनुभव असीम है।
शब्द तुम्हें समझ में आ जाएंगे।
अनुभव तुम्हें बदल देगा।
तुम बदलने के लिए तैयार हो?
या सिर्फ सुनने आए हो?
क्या तुममें साहस है –
सत्य को जानने का?
या बस आराम से बैठकर – ज्ञान की बातें सुननी हैं?
उपनिषद तुम्हें हिला देता है।
यह कहता है –
“कुछ भी मत मानो।
अनुभव करो।
अनुभव के बाद – कहने की जरूरत नहीं बचेगी।”
उपनिषद कहता है –
“जो कहे – मुझे आत्मा का ज्ञान है – वह अज्ञानी है।”
क्योंकि अनुभव मौन हो जाता है।
कहने की कोई जरूरत नहीं रहती।
आज हम उससे आगे बढ़ते हैं।
उपनिषद का अगला वचन और भी गहरा है।
यह कहता है –
“समाधि कैसी होनी चाहिए? – निर्बीज समाधि।”
यह शब्द सुनते ही बहुत से लोग डर जाते हैं।
समाधि?
उन्हें लगता है – यह कोई बहुत कठिन बात है।
या कोई जादू है।
या कोई विशेष क्रिया है।
कुछ मिल जाएगा – कुछ अनुभव होगा – रोशनी फूट पड़ेगी – घंटियां बजेंगी।
ओशो कहते हैं –
“यह सब तमाशा है।
साधारण समाधि में बीज छुपा रह जाता है।”
बीज मतलब – इच्छा।
आकांक्षा।
स्वप्न।
मान लो तुम ध्यान करते हो – और तुम्हारी आकांक्षा है – ‘मुझे शांति मिले।’
तब यह बीज है।
यह बीज तुम्हें बार-बार जन्म देगा।
क्योंकि आकांक्षा बची हुई है।
उपनिषद कहता है –
समाधि निर्बीज होनी चाहिए।
बिना किसी आकांक्षा के।
बिना किसी संकल्प के।
बिना विकल्प के।
ध्यान दो –
यह बहुत सूक्ष्म बात है।
लोग ध्यान करते हैं – लेकिन भीतर ख्वाहिश छुपी रहती है।
वे सोचते हैं – ‘मैं मोक्ष पाऊंगा।’
‘मुझे ईश्वर मिलेगा।’
‘मुझे आत्मज्ञान मिलेगा।’
यह ख्वाहिश ही बंदीगृह है।
यह आकांक्षा ही बंधन है।
यह तुम्हें बार-बार दुनिया में घसीट लाएगी।
ओशो ने कहा है –
“ध्यान तब शुद्ध होता है – जब उसमें कोई मांग न रहे।
तुम्हारा ध्यान मांग रहित हो।
मौन – जो कुछ नहीं चाहता।
मौन – जो कुछ नहीं मांगता।
मौन – जो केवल मौन रह जाता है।”
समाधि का अर्थ क्या है?
ओशो कहते हैं –
“समाधि का अर्थ है – मन का विलय।”
लेकिन हमारा मन बहुत चालाक है।
मन समाधि भी पाना चाहता है।
मन कहता है – ‘मैं समाधि में जाऊंगा।’
देखो – यह ‘मैं’ अब भी बचा है।
जब तक यह ‘मैं’ है – समाधि संभव नहीं।
यह ‘मैं’ ही सारी समस्या है।
‘मैं’ ही बीज है।
‘मैं’ ही संसार है।
‘मैं’ ही दुख है।
‘मैं’ ही जन्म-मरण है।
उपनिषद कहता है –
“समाधि निर्बीज होनी चाहिए।”
जिसमें कोई बीज न बचे।
न स्वर्ग पाने का।
न मोक्ष पाने का।
न कुछ भी बनने का।
देखो – लोग ध्यान करते हैं – लेकिन भीतर सोचते हैं –
‘अब मैं साधु हो जाऊंगा।’
‘अब मैं महान हो जाऊंगा।’
‘अब लोग मेरी पूजा करेंगे।’
‘अब मुझे सिद्धियां मिलेंगी।’
यह सब बीज हैं।
यह सब जहर है।
यह सब मन की चालें हैं।
ओशो ने कहा –
“तुम्हारे भीतर जितनी भी आकांक्षाएं हैं – सब छोड़ दो।
छोड़ने की भी आकांक्षा छोड़ दो।
कुछ मत पकड़ो।
बस मौन रहो।
बस उपस्थित रहो।
बस साक्षी रहो।”
यह उपनिषद का संदेश है।
निर्बीज समाधि।
समाधि जिसमें कुछ भी बोने को बाकी न रहे।
जिसमें कोई चाह न रहे।
न इच्छा, न कामना, न डर।
पूर्ण निर्विकारता।
पूर्ण शून्यता।
तुम सोचो –
क्या तुम तैयार हो?
क्या तुम कुछ भी न चाहने को तैयार हो?
यह बहुत बड़ा प्रश्न है।
क्योंकि हमारा पूरा जीवन चाह पर खड़ा है।
हम हर काम किसी चाहत से करते हैं।
यहां तक कि धर्म भी।
लोग मंदिर जाते हैं – क्योंकि वे कुछ मांगते हैं।
लोग दान करते हैं – क्योंकि वे पुण्य चाहते हैं।
लोग ध्यान करते हैं – क्योंकि वे मोक्ष चाहते हैं।
यह सब सौदा है।
यह बाजार है।
उपनिषद कहता है –
“बाजार छोड़ो।
सौदा छोड़ो।
निर्बीज हो जाओ।”
मत कहो – “मुझे चाहिए।”
कहो – “कुछ नहीं चाहिए।”
कहो भी मत – सिर्फ रहो।
ओशो कहते हैं –
“जो कुछ नहीं चाहता – उसे सब मिल जाता है।
क्योंकि उसका ‘मैं’ मर जाता है।
उसमें ईश्वर प्रवाहित हो जाता है।
ईश्वर केवल वहां आता है – जहां कोई मांग नहीं बचती।”
यह बहुत सरल है।
लेकिन मन को असंभव लगता है।
क्यों?
क्योंकि मन मांग ही है।
मन का स्वभाव ही चाहना है।
तुम कहो – “मुझे कुछ नहीं चाहिए।”
मन कहेगा – “अच्छा – अब मुझे कुछ नहीं चाहिए – इसलिए मुझे शांति मिले।”
देखो – यह भी चाहना हो गई।
मन ने चाल चल दी।
उपनिषद कहता है –
यह खेल पहचानो।
मन को पकड़ो।
उसकी चालें देखो।
साक्षी बनो।
लेकिन पकड़ो मत।
रोको मत।
बस देखो।
देखते-देखते –
मन शांत हो जाता है।
मन स्वाभाविक रूप से चुप हो जाता है।
जैसे कीचड़ नीचे बैठ जाए – पानी साफ हो जाए।
ओशो कहते हैं –
“समाधि कोई प्रयास नहीं है।
समाधि प्रयास का अंत है।
समाधि कोई सिद्धि नहीं है।
समाधि सहजता है।”
अब उपनिषद एक और अद्भुत बात कहता है –
“संकल्प रहित, विकल्प रहित, मुमुक्षा रहित।”
ध्यान दो –
यह कहता है – मुमुक्षा भी न रहे।
मुमुक्षा यानी मोक्ष पाने की चाह भी छोड़ दो।
यह सबसे सूक्ष्म बीज है।
सबसे खतरनाक बीज।
तुम सब छोड़ दो – लेकिन कहो – “मुझे मोक्ष चाहिए।”
तो कुछ भी नहीं छोड़ा।
ओशो ने इस पर हंसते हुए कहा –
“तुम संसार छोड़ दो – लेकिन मोक्ष की दुकान खोल लो।
यह तो वही व्यापार है।
यह तो वही लालच है।
यह वही अहंकार है – ‘मैं मुक्त हो गया हूं।’”
सच्चा साधक मोक्ष भी नहीं चाहता।
क्योंकि चाहना ही बंधन है।
जो कुछ भी चाहो – वह तुम्हें बांध लेगा।
जो कुछ भी चाहो – वह तुम्हें फिर संसार में फेंक देगा।
उपनिषद कहता है –
“मुमुक्षा भी छोड़ो।”
यानी परम विराग।
परम संन्यास।
कुछ भी न रह जाए।
न संसार की कामना।
न मोक्ष की कामना।
न जीवित रहने की चाह।
न मरने की चाह।
कुछ भी नहीं।
तब क्या होगा?
तब वही होगा जो होना है।
तब परमात्मा तुम्हारे भीतर घटेगा।
तब तुम पाओगे – सब हो गया – बिना कुछ कहे, बिना कुछ मांगे।
तब परम आनंद – अनिर्वचनीय – अव्यक्त – अव्याख्येय – तुम्हारे भीतर फूट पड़ेगा।
ओशो कहते हैं –
“जब सब संकल्प खत्म हो जाएं – तब तुम संकल्पातीत हो जाते हो।
और वही मोक्ष है।
मोक्ष कोई जगह नहीं है।
मोक्ष कोई स्थिति नहीं है।
मोक्ष संकल्प का क्षय है।”
अब सोचो –
क्या तुम तैयार हो – कुछ भी न चाहने के लिए?
क्या तुम तैयार हो – सब छोड़ने के लिए – यहां तक कि मोक्ष की चाह भी?
यह बहुत साहस मांगता है।
क्योंकि हम भीख मांगने के इतने आदी हैं।
ईश्वर के दरवाजे भी हम भीख मांगने पहुंच जाते हैं।
उपनिषद कहता है –
“तुम भीख मत मांगो।
राजा बनो।
सब छोड़ दो – तब सब तुम्हारा होगा।”
ओशो ने कहा –
“तुम्हारा मन दो चीजों से बना है – संकल्प और विकल्प।”
संकल्प – यानी इरादा।
विकल्प – यानी चुनाव।
मन यही करता है –
किसी चीज का इरादा करता है – और फिर चुनाव करता है।
देखो अपने जीवन में –
तुम हमेशा तय करते हो –
‘मुझे यह चाहिए, यह नहीं चाहिए।’
‘यह अच्छा है, यह बुरा है।’
‘यह सुख है, यह दुख है।’
‘यह सही है, यह गलत है।’
यह विकल्प का खेल है।
तुम हर पल चुनाव करते हो।
यह चुनाव ही मन को बनाए रखता है।
तुम जितना चुनाव करोगे –
उतना उलझोगे।
उतना बंधोगे।
उतना ही संसार में फंसोगे।
उपनिषद कहता है –
“विकल्प का अंत कर दो।”
मत कहो – यह सही – यह गलत।
मत कहो – यह अच्छा – यह बुरा।
बस देखो।
साक्षी हो जाओ।
ओशो ने इसे ऐसे समझाया –
“मन द्वैत है।
मन कहता है – यह सुंदर है – वह कुरूप है।
मन कहता है – यह प्रेम है – वह घृणा है।
मन कहता है – यह पवित्र है – वह अपवित्र है।”
लेकिन उपनिषद कहता है –
“जहां विकल्प है – वहां मन है।
जहां विकल्प नहीं – वहां समाधि है।”
तुम्हें विकल्प छोड़ना होगा।
मत चुनो।
मत पकड़ों।
किसी तरफ मत झुको।
केवल देखो।
देखते रहो।
साक्षी रहो।
यह कठिन लगता है।
लोग पूछते हैं –
“अगर मैं कुछ भी न चुनूं – तो मैं निर्जीव हो जाऊंगा?”
ओशो कहते हैं –
“नहीं।
जब विकल्प गिर जाता है – तब जीवन की सबसे गहन ऊर्जा मुक्त होती है।
तुम पहले बार सच में जीवित होते हो।”
क्यों?
क्योंकि अब तुम दो हिस्सों में बंटे नहीं हो।
तुम पूरे हो जाते हो।
तुम समग्र हो जाते हो।
विकल्प तुम्हें तोड़ता है।
साक्षीभाव तुम्हें जोड़ता है।
उपनिषद कहता है –
“संकल्प भी छोड़ दो।”
संकल्प यानी – कुछ करने की योजना।
कुछ पाने की योजना।
कुछ बदलने की योजना।
यह भी मन का ही हिस्सा है।
ओशो कहते हैं –
“जिस क्षण तुम कहो – ‘मुझे कुछ नहीं करना है।’
‘मुझे कुछ नहीं पाना है।’
‘मैं जैसा हूं – वैसा ही हूं।’
उस क्षण पहली बार तुम स्वतंत्र हो जाते हो।”
लोग पूछते हैं –
“तो क्या हम आलसी हो जाएं?
कुछ भी न करें?”
ओशो हंसते हैं –
“नहीं।
जो करता है – वह मन है।
जो घटता है – वह आत्मा है।”
ध्यान से सुनो –
उपनिषद ‘करने’ को नहीं कहता।
उपनिषद ‘घटने’ को कहता है।
करना – संकल्प है।
घटना – सहजता है।
करना – अहंकार है।
घटना – समर्पण है।
(गंभीर होकर – धीमे स्वर में:)
उपनिषद कहता है –
“संकल्प का क्षय करो।”
यानी भीतर पूरी तरह रिक्त हो जाओ।
तुम्हारे भीतर कोई योजना न हो।
कोई आकांक्षा न हो।
कोई प्रयत्न न हो।
तब क्या होगा?
तब सहज आत्मघटना घटती है।
उपनिषद इसे सहजता कहता है।
ओशो इसे ‘लेज़नेस विदआउट आलस्य’ कहते हैं –
एक ऐसी निष्क्रियता – जिसमें गहरी सक्रियता है।
जिसमें जीवन स्वयं बहता है।
तुम उसमें बाधा नहीं डालते।
तुम्हारे भीतर अब कोई द्वंद्व नहीं रहेगा।
कोई खींचातानी नहीं रहेगी।
तुम ऐसे हो जाओगे – जैसे बहता हुआ पानी।
जैसे हवा का झोंका।
जैसे बादल।
जैसे फूल।
सहज।
स्वाभाविक।
ओशो ने कहा –
“सहजता धर्म है।
सहजता ही मोक्ष है।
सहजता ही परमात्मा है।”
यह आत्मघटना कैसी होती है?
यह कोई तमाशा नहीं है।
कोई आतिशबाजी नहीं है।
कोई चमत्कार नहीं है।
यह बहुत ही सरल घटना है –
लेकिन इतनी गहन – कि शब्द उसे नहीं पकड़ सकते।
उपनिषद कहता है –
“वह अनिर्वचनीय है।”
तुम उसे बयान नहीं कर सकते।
तुम केवल उसे जी सकते हो।
तुम केवल उसमें लीन हो सकते हो।
तब जीवन बदल जाता है।
तब तुम पाते हो –
‘मैं कुछ नहीं हूं।’
लेकिन सब कुछ मुझमें घट रहा है।
‘मैं शून्य हूं।’
लेकिन सब मुझमें समाहित है।
‘मैं मौन हूं।’
लेकिन यह मौन ही संगीत बन गया है।
ओशो कहते हैं –
“तुम्हारा छोटा सा ‘मैं’ मर जाता है – और विराट अस्तित्व तुम्हारे भीतर खिल जाता है।”
उपनिषद का अंतिम संदेश यही है –
“निर्बीज समाधि।
विकल्प का अंत।
संकल्प का क्षय।
मुमुक्षा का भी अंत।
और तब – सहज आत्मघटना।”
अब सोचो –
क्या तुम इतने साहसी हो?
क्या तुम सब छोड़ सकते हो?
यहां तक कि मोक्ष की चाह भी?
यहां तक कि धार्मिक बनने की आकांक्षा भी?
लोग पूछते हैं –
“फिर क्या बचेगा?”
ओशो कहते हैं –
“फिर वही बचेगा – जो सत्य है।
फिर वही बचेगा – जो पहले भी था – लेकिन तुमने उसे देखा नहीं।”
वह सत्य क्या है?
वह परम मौन है।
वह परम शांति है।
वह परम प्रेम है।
वह परम आनंद है।
जो अनंत है।
जो अपरिमेय है।
जो तुम हो – लेकिन भूल गए हो।
उपनिषद हमें याद दिलाता है –
“तुम्हें कुछ पाना नहीं है।
तुम्हें केवल छोड़ना है।”
पाना तो पहले से ही है।
तुम्हारे भीतर छुपा है।
लेकिन तुमने उसे ढक रखा है – अपनी इच्छाओं से।
अपने विकल्पों से।
अपने संकल्पों से।
यह सब हटाओ – वह स्वयं प्रकट हो जाएगा।
ओशो इसे ऐसे कहते हैं –
“ध्यान कोई प्रयास नहीं है।
ध्यान प्रयास का अंत है।
ध्यान संकल्प का अंत है।
ध्यान विकल्प का अंत है।
ध्यान का अर्थ है – होना।
केवल होना।
जैसे हो – वैसे ही होना।
पूर्ण स्वीकार।
पूर्ण समर्पण।”
तो प्रिय आत्मन,
उपनिषद का यह पांचवां अध्याय हमें बुलाता है –
कहीं जाने को नहीं –
बल्कि ठहर जाने को।
कुछ करने को नहीं –
बल्कि होने को।
कुछ पाने को नहीं –
बल्कि पहचानने को – कि जो है वही पर्याप्त है।
यह अंतिम शांति है।
यह अंतिम आनंद है।
यह निर्वाण है।
यह मोक्ष है –
जिसे चाहने से नहीं – छोड़ने से पाया जाता है।
ओशो कहते हैं –
“मोक्ष पाने की कला – छोड़ने की कला है।”
कुछ भी मत पकड़ो।
सब छोड़ दो।
यहां तक कि छोड़ने को भी छोड़ दो।
तब तुम शुद्ध हो जाते हो।
निर्मल हो जाते हो।
मौन हो जाते हो।
और वही समाधि है।
इतना ही आज।
उपनिषद यहीं समाप्त नहीं होता –
लेकिन यह संदेश पर्याप्त है।
अगर तुम इसे समझ लो –
तो शेष सब समझ आ जाएगा।
धन्यवाद।
मौन में उतर जाओ।
स्वयं में उतर जाओ।
वहीं परमात्मा है।
वहीं सत्य है।
वहीं मुक्ति है।