Jul 5, 2025

त्रैलंग स्वामी : जीवन और दर्शन (Trailanga Swami: Life and Philosophy)

भारतीय साधना परंपरा में जिन महायोगियों और सिद्ध संतों की ख्याति चमत्कार, तप और ब्रह्मज्ञान के कारण दूर-दूर तक फैली, उनमें त्रैलंग स्वामी का नाम अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है। वाराणसी में लगभग डेढ़ शताब्दी तक सक्रिय रहकर उन्होंने जो आध्यात्मिक प्रभाव छोड़ा, वह आज भी भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक स्मृति का हिस्सा है।

त्रैलंग स्वामी के जीवन से जुड़ी घटनाएँ साधारण मानव-बुद्धि की सीमाओं को लांघती प्रतीत होती हैं। उनके दीर्घायु होने के दावे, गंगा में घंटों जल-समाधि, विषपान के बाद भी जीवित रहना, पानी पर चलना, और उनके द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदांत का जीवन्त अनुशीलन – ये सब उनके व्यक्तित्व को रहस्यात्मक और चमत्कारमय बनाते हैं।

यह शोधात्मक निबंध त्रैलंग स्वामी के जीवन, साधना, दार्शनिक विचारधारा, चमत्कारों और उनसे जुड़ी लोककथाओं का विस्तृत विवेचन करता है। साथ ही इसमें उनके ऐतिहासिक महत्व और आधुनिक भारतीय अध्यात्म में उनके स्थान का भी विश्लेषण किया गया है।

✦ जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

त्रैलंग स्वामी का जन्म दक्षिण भारत के आंध्र प्रदेश के विजयनगरम ज़िले के होलीया या होलिया नामक ग्राम में हुआ था। उनके जन्म का काल निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, लेकिन सामान्यतः उन्हें 15वीं–16वीं शताब्दी का माना जाता है। कुछ लोककथाओं में उनका जन्म 1600 या उससे भी पहले बताया जाता है। उनके माता-पिता धार्मिक और संस्कारी ब्राह्मण परिवार से थे।

उनके पिता का नाम नरसिंह शास्त्री था। वे वेद-पुराण के विद्वान, प्रतिष्ठित आचार्य और धार्मिक अनुष्ठानों के विशेषज्ञ थे। उनकी माता का नाम विद्यावती था। माता अत्यंत भक्त और साध्वी स्वभाव की थीं। परिवार में समृद्धि थी, लेकिन उसमें धार्मिक शुचिता और आध्यात्मिक आचार का पालन होता था।

शिवराम (जो आगे चलकर त्रैलंग स्वामी कहे गए) बचपन से ही गंभीर, विचारशील और ध्यान में तल्लीन रहने वाले थे। उनके बारे में कहा जाता है कि बचपन में ही वे घंटों समाधि-जैसी स्थिति में बैठ जाया करते थे और सांसारिक खेलकूद से उन्हें कोई आकर्षण न था। माता-पिता ने उनके ऐसे स्वभाव को भगवान शिव की कृपा का संकेत माना।

✦ बाल्यकालीन घटनाएँ

लोक-परंपरा में एक कथा मिलती है कि एक बार बालक शिवराम नदी किनारे बैठकर ध्यान कर रहे थे। गांव के लोग उन्हें ढूंढते हुए वहाँ पहुँचे, तो देखा कि उन पर सर्प लिपटा हुआ है, किंतु बालक निश्चल बैठे हैं। यह देखकर लोग भयभीत हो गए, परंतु शिवराम के मुख पर अद्भुत शांति थी। कहते हैं, सर्प स्वयं उतरकर चला गया। इस घटना ने गांव वालों को उनके असाधारण व्यक्तित्व का संकेत दे दिया।

एक अन्य कथा में कहा जाता है कि वे गायों को चराने ले जाते, किंतु लौटते समय सब गायें स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट हो जातीं। उनके चरवाहे साथी भी चकित होते कि इतनी देर ध्यान में रहने के बाद भी कैसे सब गायें चरकर तृप्त हो जाती हैं।

✦ किशोरावस्था और वैराग्य 

जैसे-जैसे वे किशोर हुए, उनका ध्यान धर्मशास्त्रों, उपनिषदों और वेदांत पर बढ़ा। उनके पिता नरसिंह शास्त्री ने उन्हें संस्कृत, वेद, पुराण और अन्य शास्त्रों की शिक्षा दी। शिवराम की स्मृति और ग्रहण शक्ति अद्भुत थी। वे शास्त्रार्थ में प्रवीण हो गए।

हालांकि परिवार उनकी विद्वत्ता से प्रसन्न था, परंतु शिवराम का चित्त सांसारिक सुखों में नहीं रमता था। वे अकसर समाधि जैसी मुद्रा में ध्यान करते रहते।

उनकी माता विद्यावती का स्वास्थ्य गिरने लगा। उनकी सेवा में भी शिवराम ने संन्यासी-वृत्ति दिखाई – बिना थके, बिना स्वार्थ के, पूर्ण प्रेम और करुणा से सेवा की। माता के निधन ने उन पर गहरा प्रभाव डाला। पिता भी कुछ वर्षों बाद दिवंगत हुए।

इन दो मृत्यु अनुभवों ने शिवराम के मन में अनित्यत्व और मरणशीलता की भावना को दृढ़ कर दिया। उन्होंने स्पष्ट घोषणा कर दी कि वे अब गृहस्थ जीवन में नहीं रुकेंगे।

✦ गृहत्याग

पिता के निधन के बाद शिवराम ने संपत्ति का त्याग कर दिया। भाइयों और रिश्तेदारों को सब कुछ सौंपकर वे गृहत्यागी हो गए।

यहाँ एक प्रसंग उल्लेखनीय है। कहा जाता है कि उनके परिवार ने बहुत आग्रह किया कि वे कम-से-कम विवाह कर लें। उन्होंने उत्तर दिया –

“जिस देह का कोई ठिकाना नहीं, उसे किसके साथ बाँधूँ?”

इस वाक्य ने गांव में उनकी छवि एक त्यागी और वैराग्यवान साधु के रूप में स्थापित कर दी।

✦ संन्यास दीक्षा

गृहत्याग के बाद वे दक्षिण भारत के विभिन्न मठों और तीर्थक्षेत्रों में घूमे। कहते हैं उन्होंने तुंगभद्रा, कृष्णा और गोदावरी नदी के तटों पर गहन तप किया। कई योगियों और सिद्धों से दीक्षा ली और साधना रहस्य सीखे।

विशेष रूप से वे अद्वैत वेदांत की ओर आकृष्ट हुए। एक परंपरा के अनुसार उन्होंने एक महान अद्वैत वेदान्ती गुरु से संन्यास की विधिवत दीक्षा ली और अपना नाम “त्रैलंग” या “तेलंग” (आंध्र या तेलंगाना क्षेत्र से आए होने के कारण) स्वीकार किया।

✦ कठोर तपस्या और प्रारंभिक चमत्कार

उनकी प्रारंभिक साधना का विवरण भी किंवदंती बन चुका है। कहा जाता है:

वे कई वर्षों तक केवल पानी पीकर रहे।

तपोवनों में सर्पों, बिच्छुओं से घिरे रहकर भी अडिग साधना की।

घने जंगलों में ध्यान करते समय जंगली जानवर उनके पास बैठ जाते।

उन्हें कभी किसी से भय न लगता।

✦ लोककथाओं में वर्णित एक कथा

एक प्रचलित कथा है कि एक गाँव में उन्होंने निवास किया, जहाँ भयंकर सूखा पड़ा। गांववालों ने उनसे प्रार्थना की। त्रैलंग स्वामी ने हँसकर कहा – “जाओ, तालाब में जल भरो।”

लोगों ने कहा – “तालाब सूखा पड़ा है।”

उन्होंने कहा – “मेरी झोली वहाँ डाल दो।”

लोगों ने संकोच से उनकी झोली तालाब में रखी। कुछ ही देर में पानी उस झोली से निकलकर तालाब में भर गया।

यह कथा लोकश्रद्धा में इस रूप में जीती है कि त्रैलंग स्वामी केवल तपस्वी नहीं थे, वरन् लोककल्याणकारी सिद्ध पुरुष थे।

✦ तीर्थयात्रा और साधना यात्रा

गृहत्याग के बाद वे वर्षों तक भारत के उत्तर-दक्षिण तीर्थों में घूमते रहे।

कांची, रामेश्वरम, श्रीशैलम जैसे दक्षिण के प्रमुख तीर्थ।

फिर उत्तर भारत में हरिद्वार, ऋषिकेश, बद्रीनाथ, केदारनाथ।

पुष्कर, गया, जगन्नाथपुरी।

हिमालय में कई निर्जन स्थलों पर ध्यान।

उनकी यह यात्रा केवल धार्मिक नहीं थी, बल्कि आत्मसाक्षात्कार की खोज थी। वे जहाँ जाते, वहां ध्यानस्थ रहते और अपनी उपस्थिति से ही लोगों को चकित कर देते।


काशी आगमन

त्रैलंग स्वामी के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण मोड़ उनका काशी (वाराणसी) आगमन माना जाता है।

कई परंपराओं के अनुसार वे लगभग चालीस वर्ष की अवस्था में काशी आए और शेष जीवन यहीं बिताया।

कहा जाता है कि वे अपने गुरु की आज्ञा पर उत्तर भारत की यात्रा करते हुए काशी पहुँचे थे।

वाराणसी उस समय भी भारत की आध्यात्मिक राजधानी मानी जाती थी।

वेदांत, योग, तंत्र, भक्ति—सभी परंपराएँ यहाँ फली-फूली थीं।

गंगा के घाट, संन्यासियों के मठ, वेद-विद्यालय और साधुओं की मंडलियाँ इस नगरी को एक विशेष दिव्यता प्रदान करती थीं।

त्रैलंग स्वामी ने इस नगर को अपनी साधना का स्थायी केन्द्र चुना।


✦ वाराणसी का जीवन

वाराणसी पहुँचकर उन्होंने गंगा तट को अपनी साधना भूमि बनाया।

वे प्रायः मणिकर्णिका, दशाश्वमेध, अस्सी, पंचगंगा और हनुमान घाटों पर देखे जाते।

किंतु उनका कोई निश्चित निवास स्थान नहीं था।

वे किसी कुटिया, मंदिर या मठ में नहीं टिकते थे।

उनकी साधना का स्वरूप अत्यंत अनौपचारिक था।

वे निर्वस्त्र रहते थे।

उनका शरीर भस्म से लिप्त रहता।

कई बार वे गंगा जल में कई घंटों तक समाधि की स्थिति में बैठे रहते।

लोग उन्हें “चलते फिरते भगवान शिव” मानने लगे।

वाराणसी के निवासी और तीर्थयात्री उन्हें एक जीवित तीर्थ के रूप में देखने लगे।

कहा जाता है कि उनके दर्शनों मात्र से लोगों को मानसिक शांति मिलती थी।

वे सामान्य लोगों से बहुत कम बोलते थे, किंतु कभी-कभी अद्भुत सूक्तियों में उपदेश दे देते।

✦ साधना पद्धति

त्रैलंग स्वामी अद्वैत वेदांत के सिद्ध आचार्य माने जाते थे।

उनकी साधना में तप, ध्यान और समाधि के साथ-साथ अद्वैत बोध की अंतर्दृष्टि प्रमुख थी।

वे कहते थे –

“आत्मा और परमात्मा एक हैं। भेद केवल अज्ञान का है।”

उनकी साधना पद्धति में तीन बातें प्रमुख थीं:

1️⃣ देह-संयम और इंद्रियनिग्रह

2️⃣ ध्यान और समाधि

3️⃣ वैराग्य और अपरिग्रह

उनकी दिनचर्या अत्यंत अनियमित दिखती थी, लेकिन उसमें कठोर अनुशासन छिपा था।

वे घंटों गंगा के जल में ध्यानमग्न रहते।

कई बार घाट की सीढ़ियों पर लेटे रहते, या भस्म रमाकर समाधि में डूबे रहते।

खाना कभी मिलता तो खाते, अन्यथा उपवास करते।

✦ वाराणसी की जनता में लोकप्रियता

धीरे-धीरे वाराणसी में उनकी ख्याति फैलने लगी।

ब्राह्मण विद्वान, गृहस्थ, संन्यासी, व्यापारी, गरीब–सब उनके दर्शन को आते।

वे किसी को भी भेदभाव से नहीं देखते थे।

उनके शिष्य बताते हैं कि वे अस्पृश्य माने जाने वालों को भी गले लगा लेते थे।

उनका जीवन उपदेशमूलक था।

उन्होंने कभी विधिवत प्रवचन या सभा नहीं की।

लेकिन जो भी उनके पास आता, उसे वे अत्यंत सहज भाषा में अद्वैत वेदांत समझा देते।

वे कहते थे –

“सभी तीर्थ तुम्हारे भीतर हैं। शरीर ही गंगोत्री, हरिद्वार, काशी है।”

✦ चमत्कार और लोककथाएँ

त्रैलंग स्वामी के जीवन में कई चमत्कारों की कथाएँ प्रचलित हैं।

वाराणसी में उनकी ख्याति का एक बड़ा कारण यही कथाएँ भी थीं।

हालाँकि उन्होंने कभी इन्हें प्रचारित नहीं किया, पर जनश्रुति में वे जीवित रहीं।




➤ कथा 1: जल-समाधि

सबसे प्रसिद्ध घटना उनकी जल-समाधि की है।

कहा जाता है कि वे घंटों, कभी-कभी दिनों तक गंगा के भीतर डूबे रहते और फिर सहज भाव से बाहर आते।

लोग उन्हें ढूँढने लगते और अचानक देखते कि वे गंगा की लहरों पर स्थिर भाव से खड़े हैं या तट पर ध्यानमग्न बैठे हैं।




एक बार काशी के राजा ने उन्हें परीक्षा के लिए गंगा में बाँधकर डुबा दिया।

कई घंटों बाद उन्हें निकालने पर देखा गया कि वे समाधि में तल्लीन थे, शरीर में कोई विकृति नहीं थी।

यह देखकर राजा ने क्षमा माँगी और उन्हें भगवान शिव का अवतार माना।




➤ कथा 2: विषपान प्रसंग

वाराणसी के कुछ नास्तिकों ने उनके चमत्कारों को ढकोसला कहकर उनकी परीक्षा लेने की ठानी।

उन्होंने उनके लिए विष मिला हुआ दूध भेजा।

त्रैलंग स्वामी ने मुस्कुराकर सबके सामने वह दूध पी लिया।

उन्हें कुछ नहीं हुआ।

कहते हैं, उन्होंने केवल इतना कहा –




“जहर और अमृत में भेद केवल अज्ञानी के लिए है।”




➤ कथा 3: चोरी की शिक्षा

एक बार एक चोर ने उनके पास से बर्तन चुरा लिए।

लोगों ने चोर को पकड़ा और उनके पास लाए।

स्वामी ने कहा –




“उसे क्यों मारते हो? जो भी मेरे पास है, सब उसका है।”

उन्होंने उस चोर को बर्तन ही दे दिए।

चोर उनके चरणों में गिर पड़ा और जीवनभर उनका भक्त बन गया।




➤ कथा 4: राजा के लिए चमत्कार

कहा जाता है कि एक बार काशी के राजा को उनके चमत्कारों पर संदेह हुआ।

राजा ने उन्हें बंदी बनाने का आदेश दिया।

सैनिक उन्हें बाँधकर ले जाने लगे, लेकिन रस्सियाँ अपने-आप खुल जातीं।

अंततः स्वामी स्वयं राजमहल गए और कहा –




“मुझे बाँधना है तो अपने अहंकार को बाँधो।”

राजा उनके चरणों में गिर पड़ा।




➤ कथा 5: महिला को जीवनदान

एक बार एक विधवा महिला ने गंगा में कूदकर आत्महत्या कर ली।

लोग उसका शव बाहर लाए।

त्रैलंग स्वामी वहाँ पहुँचे और बोले –

“यह सोई है।”

उन्होंने शव के सिर पर हाथ रखा।

कहते हैं महिला जीवित हो उठी।

लोगों ने इसे उनके करुणा-सिद्ध योगबल का प्रमाण माना।

✦ दर्शन और उपदेश

उनका दर्शन अद्वैत वेदांत पर आधारित था।

वे बार-बार कहते –

“जगत मिथ्या नहीं है, जगत ब्रह्मस्वरूप है। तुम स्वयं ब्रह्म हो।”

उन्होंने कभी शास्त्रार्थ के लिए औपचारिक मंच नहीं बनाया।

किंतु विद्वानों के प्रश्नों का सरल उत्तर देते।

उनका उपदेश था –

✅ ईश्वर सब में है

✅ देह-मोह छोड़ो

✅ इंद्रिय संयम रखो

✅ अहंकार का त्याग करो

✅ सबमें एकता देखो


✦ काशी के साधु समाज में स्थान

काशी के साधु समाज में त्रैलंग स्वामी को विशेष आदर प्राप्त था।

भिन्न-भिन्न संप्रदायों के संन्यासी उन्हें गुरु मानते थे।

तांत्रिक, वैष्णव, शैव, अद्वैतवादी–सभी उनके पास समाधान पाने आते।




काशी के कई प्रमुख साधुओं ने उन्हें भगवान शिव का साक्षात अवतार कहा।

उनका निर्वस्त्र रहना और भस्म रमाना शैव परंपरा की प्राचीन नागा साधु परंपरा से जोड़ा जाता है।

लेकिन वे किसी एक संप्रदाय में सीमित नहीं थे।

✦ संक्षेप

त्रैलंग स्वामी का काशी जीवन अत्यंत सरल, लेकिन चमत्कारमय था।

उनकी कठोर तपस्या, अद्वैत वेदांत की सहज व्याख्या और लोककल्याणकारी दृष्टि ने उन्हें जनमानस में अमर बना दिया।

उनकी छवि एक जीवित मुक्त, सिद्धयोगी और महाकाल के रूप में स्थापित हो गई।


त्रैलंग स्वामी की दीर्घायु : ऐतिहासिक रहस्य या योगसिद्धि?

त्रैलंग स्वामी की आयु को लेकर अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं।
कुछ परंपराओं के अनुसार वे 280 वर्ष तक जीवित रहे, तो कुछ में यह संख्या 160–200 वर्ष तक मानी गई है।

यह दावा सामान्यत: आधुनिक विज्ञान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, लेकिन उनके दीर्घजीवी होने का रहस्य योग और तप से जुड़ा हुआ माना जाता है।
योगशास्त्र के अनुसार, प्राणायाम, मौन, अल्पाहार, ब्रह्मचर्य और ध्यान से आयु सीमा बढ़ाई जा सकती है।
त्रैलंग स्वामी इन सभी साधनों के परम आचार्य थे।

उनके समकालीन लोग यह स्वीकार करते थे कि जब वे काशी आए, तब भी उनकी आयु 40–50 वर्ष से ऊपर थी।
और वे कम-से-कम 100 वर्षों तक वहां रहे।
अतः यह तो स्पष्ट है कि वे एक दीर्घजीवी योगी अवश्य थे, भले ही 280 वर्ष की आयु पर ऐतिहासिक पुष्टि न हो सके।
✦ अन्य संतों से संपर्क

त्रैलंग स्वामी के समकालीन भारत में अनेक संत, महायोगी और धार्मिक सुधारक सक्रिय थे।
उनमें रामकृष्ण परमहंस, भीमाशंकर भट्ट, स्वामी विवेकानंद और तैलंग मठ के ब्रह्मचारी उल्लेखनीय हैं।
➤ रामकृष्ण परमहंस से भेंट

त्रैलंग स्वामी और रामकृष्ण परमहंस की भेंट भारतीय संत-साहित्य में अत्यंत श्रद्धा से वर्णित होती है।

कथानुसार, जब रामकृष्ण परमहंस काशी यात्रा पर आए, तब वे विशेष आग्रह से त्रैलंग स्वामी के दर्शन हेतु गंगा घाट पहुँचे।
त्रैलंग स्वामी उस समय समाधि में लीन थे।
रामकृष्ण उन्हें देखकर अभिभूत हो गए और उन्हें “चलती-फिरती शिवमूर्ति” कहा।

यह भेंट एक भावानात्मक मौन संवाद बन गई।
दोनों योगियों के बीच कुछ विशेष शब्दों का आदान-प्रदान नहीं हुआ, परंतु दोनों ने एक-दूसरे की अनुभूति में ईश्वर के पूर्णत्व का अनुभव किया।

रामकृष्ण ने बाद में अपने शिष्यों से कहा –

“त्रैलंग स्वामी केवल संत नहीं, शिव के पूर्ण अवतार हैं। उनका शरीर ही साधना है।”
✦ प्रमुख शिष्य और परंपरा

यद्यपि त्रैलंग स्वामी ने कोई औपचारिक संस्था या संप्रदाय स्थापित नहीं किया, फिर भी कुछ शिष्य उनके सान्निध्य में तप करते रहे।
इनमें प्रमुख हैं:

शिवानंद सरस्वती – जो बाद में काशी में ही तैलंग आश्रम के प्रमुख बने।


रामलाल बाबा – एक गृहस्थ भक्त, जो उनके अनुभवों को लिपिबद्ध करने का प्रयास करते रहे।


सदाशिव ब्रह्मचारी – जो उन्हें "निष्कलंक योगी" कहते थे और योगशास्त्र की परंपरा को आगे बढ़ाते रहे।

उनके उपदेश वाणी से कम, आचरण और मौन से अधिक मिलते थे।
अतः उनका “शिष्यत्व” भी शास्त्रीय रूप में नहीं, बल्कि आत्मिक अनुभव के माध्यम से होता था।
✦ समाधि और महाप्रयाण

त्रैलंग स्वामी का महाप्रयाण 1887 ईस्वी (कुछ परंपराओं में 1881) में माना जाता है।
उस समय उनकी आयु कम-से-कम 150 वर्ष से अधिक बताई जाती है।

कहा जाता है कि उन्होंने अपने शिष्यों को पूर्व संकेत दे दिया था कि वे अब इस भौतिक देह का त्याग करेंगे।
वे शांत भाव से गंगा तट पर आए, ध्यानस्थ मुद्रा में बैठ गए और धीरे-धीरे समाधिस्थ हो गए।

लोगों ने देखा, उनका शरीर धीरे-धीरे स्थिर हो गया, पर चेहरे पर वही दिव्य तेज और मुस्कान बनी रही।
यह दृश्य हजारों लोगों के लिए भावविभोर करने वाला था।

उनकी समाधि स्थली काशी के पंचगंगा घाट के समीप स्थित है।
वर्तमान में वहां एक मंदिर और आश्रम निर्मित है, जहाँ श्रद्धालु आज भी जाकर उनका स्मरण करते हैं।
✦ त्रैलंग स्वामी की शिक्षाओं का प्रभाव

त्रैलंग स्वामी ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा।
उन्होंने उपदेश भी बहुत कम दिए।
परंतु उनका जीवन स्वयं ही एक जीवित वेदांत था।

उनकी शिक्षाएँ संक्षेप में इस प्रकार हैं:


अद्वैत का जीवनानुभव – “तुम ईश्वर से अलग नहीं हो। ईश्वर तुम्हारे भीतर है।”


इंद्रिय संयम और तप – “सुख को नहीं, सत्य को खोजो।”


कर्म से वैराग्य नहीं, करुणा उपजाओ।


सबमें शिव देखो। किसी से घृणा मत करो।


दया, क्षमा और मौन – यही श्रेष्ठ साधना है।

उनकी शिक्षाओं ने भारत में एक नई आध्यात्मिक दृष्टि दी, जहाँ साधना का अर्थ केवल गुफा में बैठना नहीं, बल्कि समाज के बीच दिव्यता को जगाना है।
✦ आधुनिक स्मृति और विरासत

त्रैलंग स्वामी की स्मृति आज भी काशी के आध्यात्मिक हृदय में जीवित है।
पंचगंगा घाट स्थित तैलंग स्वामी आश्रम एक प्रमुख केंद्र है, जहाँ प्रतिवर्ष उनके निर्वाण दिवस पर समारोह होते हैं।

भारत भर के योगी, सन्यासी, साधक उन्हें अपना पूर्वज मानते हैं।
आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में उनके भक्त समूह सक्रिय हैं।

उन्हें भारतीय योग परंपरा में नागा योगियों, अद्वैताचार्यों और परमहंसों की परंपरा का महासिंधु माना जाता है।

कुछ आधुनिक लेखक उन्हें “भारतीय ईसामसीह” की संज्ञा देते हैं – क्योंकि वे भी मौन, क्षमा, निर्वसनता और करुणा के प्रतीक थे। 

त्रैलंग स्वामी केवल एक साधु नहीं, बल्कि भारत की जीवित साधना परंपरा के सारस्वत प्रतीक थे।
उनका जीवन दर्शाता है कि योग केवल अभ्यास नहीं, जीवन की पूर्ण कला है।

उन्होंने सिद्ध किया कि ब्रह्मज्ञान केवल पुस्तकों से नहीं, बल्कि व्यवहार, मौन और प्रेम से भी प्राप्त किया जा सकता है।
उनकी दीर्घायु, चमत्कार, समाधि और लोकसेवा का संगम उन्हें आधुनिक युग के एक जीवित वेदांताचार्य के रूप में स्थापित करता है।

उनकी वाणी में जीवन की अंतिम दिशा सन्निहित है:


“जो कुछ तुम बाहर खोजते हो, वही भीतर है।
भीतर झाँको – वही शिव, वही सत्य, वही मुक्ति है।”

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