Jan 6, 2025

Religious World - मृत्यु से डरना क्यों?

मृत्यु से डरना क्यों?

मृत्यु के बारे में समाज में कई तरह की धारणाएँ प्रचलित हैं। लेकिन जीवन और मृत्यु का असली स्वरूप क्या है? इस पर प्राचीन आचार्यों ने काफी कुछ लिखा है। आत्मा को शाश्वत माना गया है, जबकि शरीर को अस्थायी कहा गया है। आत्मा और पंच भौतिक शरीर का मिलन ही जीवन है, और इनका अलगाव मृत्यु कहलाता है। यदि हम मृत्यु के परिणाम पर विचार करें, तो यह सुखद प्रतीत होती है। जीवन और मृत्यु एक दिन और रात की तरह हैं; सभी जानते हैं कि दिन काम करने के लिए है और रात आराम करने के लिए। मनुष्य दिन में कार्य करता है, जिससे उसकी अंतःकरण, मन, बुद्धि और बाह्य इंद्रियाँ जैसे आँख, नाक, हाथ, पैर आदि थक जाते हैं। जब ये सभी थक जाते हैं, तब रात्रि आती है। दिन में जब मनुष्य की सभी इंद्रियाँ सक्रिय थीं, अब रात में उन्हें विश्राम की आवश्यकता होती है।

रात का समय आते ही मनुष्य गहरी नींद में चला जाता है, उसका मन और शरीर दोनों विश्राम करते हैं। काम करने से ऊर्जा का ह्रास होता है, जबकि विश्राम से ऊर्जा का संचय होता है। सुबह होते ही मनुष्य इस संचित ऊर्जा का उपयोग करता है, और फिर रात को फिर से ऊर्जा का भंडार भर जाता है। यह प्रक्रिया भगवान की शक्ति से अनादि काल से चलती आ रही है। जीवन का उद्देश्य काम करना है और मृत्यु का अर्थ विश्राम है। मनुष्य अपने जीवन के हर पल काम में लगा रहता है, उसे कभी भी आराम नहीं मिलता। बचपन से लेकर जीवन के अंतिम क्षण तक आत्मा को शांति नहीं मिलती। वृद्धावस्था में काम करने की क्षमता कम होने लगती है, और कई अंग ऐसे कमजोर हो जाते हैं कि काम करना मुश्किल हो जाता है। जब मनुष्य किसी काम के लायक नहीं रह जाता और दिन-रात बिस्तर पर पड़ा रहता है, तो...

तो भी चिन्ता चिता से, तृष्णा की भँवर से, मुक्ति नहीं पाता है। शक्ति के क्षीण हो जाने से वह अनेकों कष्ट पाता है, तभी मृत्यु देवी आकर मनुष्य पर कृपा करती है। और आराम देकर निकम्मापन दूर करती है। जिस प्रकार मनुष्य रात्रि में आराम करके प्रातःकाल नवीन शक्ति नवीन स्फूर्ति को लेकर जाग उठता है, उसी प्रकार जीवन रूपी दिन में काम करके थककर मृत्यु रूपी रात्रि में विश्राम करके मनुष्य जीवन के प्रातःकाल में नवीन शक्ति और सामर्थ्य से युक्त बाल्यावस्था को प्राप्त होता है। जहाँ बुढ़ापे में हाथ पाँव हिलाना कठिन हो गया था सारा शरीर नष्ट-भ्रष्ट हो रहा था, जो दूसरों के देखने में भयंकर था, वही मृत्यु से विश्वान्त हो मनोहर मृदु दर्शनीय रूप में परिणत हो गया। बालक को जब देखिये, वह कुछ न कुछ चेष्टा करता होगा। इस प्रकार अच्छी तरह समझ में आ गया कि मृत्यु दुख देने के लिए नहीं सुख देने के लिये ही आती है।

गीता में भी कहा गया है--

जिस प्रकार मनुष्य फटे-पुराने वस्त्र छोड़कर नए वस्त्रों को ग्रहण कर लिया करता है उसी प्रकार आत्मा जीर्ण और निकम्मा शरीर छोड़ कर नया शरीर ग्रहण कर लेता है।

क्या आपने कभी सोचा है कि पुराने कपड़ों को छोड़कर नए कपड़े पहनने में किसी को दुख या परेशानी होती है? नहीं, बल्कि नए कपड़े पहनने पर सभी खुश होते हैं। फिर आत्मा के लिए निकम्मे और कमजोर शरीर को छोड़कर नए और स्वस्थ शरीर को अपनाने में कोई कैसे दुखी हो सकता है? फिर भी, हम देखते हैं कि कई लोग भारी कष्ट सहन कर रहे हैं, उनका शरीर कमजोर हो गया है, न तो उनकी आंखें ठीक से देखती हैं और न ही कान सुनते हैं। अगर उनकी मृत्यु हो जाए तो उन्हें अच्छा लगेगा, लेकिन मौत का नाम सुनते ही वे डर जाते हैं और जब कोई उनसे मरने की बात करता है तो वे नाराज हो जाते हैं।

लेकिन यह सोचने की बात है कि मृत्यु के समय होने वाले दुख का असली कारण क्या है? वास्तव में, दुख ममता से होता है, मृत्यु से नहीं। इस संसार में जो भी चीजें हैं, वे सब प्रयोग के लिए हैं। अगर कोई उन्हें अपना मान लेता है, और उसे छोड़ना न चाहता हो तो वही दुःख उठाएगा।

एक व्यक्ति जब किसी जहाज पर सवार होता है, तो उसे यात्रा के दौरान कई चीजें मिलती हैं। यदि यात्रा के बाद वह उन चीजों से लगाव रखता है और उन्हें छोड़ना नहीं चाहता, तो उसे केवल दुःख ही मिलेगा। वहीं, जो लोग यात्रा के बाद बिना किसी वस्तु से मोह के आगे बढ़ जाते हैं, उन्हें कोई परेशानी नहीं होती। इसी तरह, जब मृत्यु का समय आता है, तो जिन लोगों को अपने शरीर, धन और परिवार से लगाव होता है, वे उन्हें छोड़ना नहीं चाहते और इसलिए दुःख का अनुभव करते हैं। लेकिन जो लोग समझते हैं कि ये सब चीजें उनकी नहीं हैं, बल्कि उन्हें यात्रा में सहूलियत के लिए मिली हैं, उन्हें मृत्यु से कोई कष्ट नहीं होता। क्योंकि अगर कोई किसी चीज को छोड़ना नहीं चाहता और उसे मजबूरी में छोड़ना पड़े, तो उसे बहुत दुःख होता है। लेकिन अगर वह खुद ही छोड़ने के लिए तैयार हो, तो किसी के द्वारा छुड़ाए जाने पर उसे कोई दुःख नहीं होगा। इस प्रकार, मृत्यु से डरने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मृत्यु एक सुखद अनुभव हो सकती है, जब कि साँसारिक पदार्थों में प्रयोग के अतिरिक्त आसक्ति , माया, ममता न हो? इसलिये मनुष्य को ममता के चक्र से अपने को मुक्त रखना चाहिये कि जिससे मरने में कष्ट न हो।

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