Apr 17, 2025

मन का मनका फेर: कबीर के दोहे में छिपा आत्म-साधना का संदेश



कबीर का दोहा:

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥

यह दोहा संत कबीर की अद्भुत आध्यात्मिक गहराई और व्यावहारिक सोच का परिचायक है। कबीर दास जी इस दोहे के माध्यम से धर्म के बाह्य आडंबरों पर कटाक्ष करते हुए सच्ची साधना की ओर संकेत कर रहे हैं।


पहले पंक्ति में कबीर कहते हैं कि कोई व्यक्ति वर्षों से, युगों तक माला फेरता रहा है—अर्थात, वह रोज़ अपने हाथ में तुलसी, रुद्राक्ष 
या अन्य माला लेकर भगवान का नाम जपता है, लेकिन उसके मन में कोई परिवर्तन नहीं आया। उसका मन आज भी वैसा ही चंचल, कामनाओं से भरा हुआ, मोह-माया में उलझा हुआ है। उसका क्रोध, लालच, ईर्ष्या, घृणा जैसी प्रवृत्तियाँ जस की तस बनी हुई हैं।

यहाँ कबीर हमें यह समझाते हैं कि केवल हाथ से माला फेरने से, केवल शारीरिक क्रियाओं से आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती। यदि मन में शुद्धता, एकाग्रता, और ईश्वर के प्रति प्रेम नहीं है तो साधना मात्र एक दिखावा बन जाती है।


दूसरी पंक्ति में कबीर एक समाधान सुझाते हैं। वे कहते हैं कि यदि तुम सच में भगवान को पाना चाहते हो, तो पहले अपने हाथ की माला (जो बाहरी साधन है) को त्याग दो और मन की माला फेरो। अर्थात्, तुम्हारा मन ही असली साधना का केंद्र है। मन की चंचलता को साधो, उसे नियंत्रित करो, उसमें ईश्वर का स्मरण करो।

यहाँ "मन का मनका फेरना" का अर्थ है – हर पल, हर साँस में ईश्वर का स्मरण करना, बिना किसी बाहरी दिखावे के, पूरी निष्ठा और भाव से। कबीर मानते हैं कि सच्ची भक्ति वह है जो भीतर से उपजे, न कि केवल परंपराओं या सामाजिक दबाव से की जाए।

यह दोहा हमें सतर्क करता है कि केवल धार्मिक क्रियाएँ करने से हम आध्यात्मिक नहीं हो जाते। यदि हमारे कर्म, विचार, और भावनाएँ शुद्ध नहीं हैं, तो पूजा-पाठ व्यर्थ है। कबीर का यह दृष्टिकोण बहुत व्यावहारिक है। वह चाहते हैं कि साधक बाहरी पूजा से ज़्यादा आत्ममंथन करे, अपने भीतर झाँके, और अपने मन की दशा को सुधारे।

सच्ची भक्ति तब होती है जब हमारा मन स्वच्छ हो, हम अहंकार, द्वेष, और लोभ से ऊपर उठें, और हर कार्य में ईश्वर का स्मरण रखें।

कबीर का यह दोहा हमें सच्चे साधक बनने की प्रेरणा देता है। यह हमें दिखावे और बाहरी आडंबरों से ऊपर उठकर, सच्चे अर्थों में आत्मा से जुड़ने का मार्ग दिखाता है। यह हमें यह सिखाता है कि साधना का मूल उद्देश्य मन की शुद्धता और आंतरिक परिवर्तन होना चाहिए। जब मन शांत और स्थिर होगा, तभी ईश्वर की अनुभूति संभव है।

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