इस आध्यात्मिक यात्रा की तीसरी और अंतिम कड़ी में आपका स्वागत है।
पहले भाग में हमने आत्मा को समझा था,
दूसरे भाग में ध्यान और आत्मा के संबंध को जाना,
और अब — हम पहुँचते हैं अंतिम पड़ाव पर: मुक्ति और आत्मज्ञान की चरम स्थिति।
🔸 मुक्ति – क्या यह मृत्यु के बाद मिलती है?
जब हम ‘मुक्ति’ शब्द सुनते हैं, तो अक्सर हमारी सोच मृत्यु के बाद के जीवन, स्वर्ग या किसी अलौकिक लोक की ओर चली जाती है।
लेकिन ओशो की दृष्टि एकदम अलग है।
"मुक्ति मृत्यु के बाद नहीं, जीवन में घटती है।" — ओशो
मुक्ति का अर्थ है:
- भीतर से पूर्ण स्वतंत्रता,
- जहाँ कोई भय नहीं,
- न कोई लोभ,
- न अतीत की ग्रंथियाँ,
- न भविष्य की बेचैनी।
- सच्ची मुक्ति का मतलब है — वर्तमान में जागकर जीना।
🔸 क्या सच में हम बंधे हैं?
तुम बाहर से बंधे हो या नहीं — इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
अगर तुम भीतर से मुक्त हो गए — वही मोक्ष है।
बाहर की ज़ंजीरें अगर आत्मा को न छू सकें,
तो तुम एक ऐसे स्वामी हो — जिसे कोई गुलाम नहीं बना सकता।
🔸 आत्मज्ञान — क्या यह कोई अनुभव है?
आत्मज्ञान को लेकर अक्सर यह भ्रम होता है कि यह कोई दिव्य अनुभव है —
जैसे कोई ज्योति, कोई कंपन या चमत्कार।
लेकिन ओशो कहते हैं —
"आत्मज्ञान का कोई अनुभव नहीं होता, क्योंकि वहाँ अनुभव करने वाला ‘मैं’ ही समाप्त हो जाता है।"
जब "मैं" (Ego) गिरता है,
और जो है — उसकी पूर्ण स्वीकृति हो जाती है,
तब आत्मज्ञान घटित होता है।
🔸 आत्मज्ञान का स्वरूप — शुद्ध दृष्टा
- कोई लक्ष्य नहीं।
- कोई चाह नहीं।
- कोई अपेक्षा नहीं।
केवल देखना।
"जब देखना शुद्ध हो जाता है —
बिना निर्णय, बिना आशा —
तब जो शेष बचता है, वही आत्मज्ञान है।"
🔸 उपनिषदों की दृष्टि
उपनिषद कहते हैं —
"अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ब्रह्म हूँ
"तत त्वम् असि" — तू वही है
जब साधक यह अनुभव करता है कि जो वह बाहर खोज रहा था,
वह तो पहले से ही उसके भीतर था —
तभी सच्ची मुक्ति प्राप्त होती है।
🔸 मुक्ति — जीवन की स्वीकृति है
ओशो के अनुसार — मुक्ति का अर्थ है जीवन को पूरी तरह स्वीकारना।"
- न लड़ना
- न भागना
- न चिपकना
जब हम स्वयं को जैसा हैं, वैसे ही स्वीकार लेते हैं —
तो एक अद्भुत परिवर्तन होता है — हम मुक्त हो जाते हैं।
आत्मज्ञान, मुक्ति और ब्रह्म की एकता
इस लेख के माध्यम से हमने जाना:
मुक्ति कोई लक्ष्य नहीं — यह एक स्थिति है।
आत्मज्ञान कोई अनुभव नहीं — यह "मैं" के अंत से प्रकट होता है।
आत्मा, मुक्ति और ब्रह्म — एक ही परम सत्य की तीन झलकें हैं।
"जो भी जानना है, वह बाहर नहीं — तुम्हारे भीतर है।" — Adhyatma Upanishad
G D PANDEY
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